राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले द्वारा संविधान की प्रस्तावना से “समाजवादी” और “धर्मनिरपेक्ष” शब्दों को हटाने की मांग ने देश की राजनीति में नई बहस छेड़ दी है। दिल्ली में हाल ही में आयोजित एक कार्यक्रम में होसबोले ने कहा कि ये दोनों शब्द 1975 में आपातकाल के दौरान असंवैधानिक तरीके से जोड़े गए थे, जब लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर कर दिया गया था। उनके इस बयान पर कांग्रेस और विपक्ष ने तीखी प्रतिक्रिया दी है।

होसबोले ने अपने भाषण में कहा कि “समाजवादी” और “धर्मनिरपेक्ष” शब्द भारत के संविधान की मूल प्रस्तावना में शामिल नहीं थे, जिसे डॉ. भीमराव अंबेडकर ने तैयार किया था। उन्होंने आपातकाल को “लोकतंत्र का काला अध्याय” बताते हुए कांग्रेस से सार्वजनिक रूप से माफी मांगने की भी मांग की। उन्होंने कहा कि 1975 में लागू किए गए बदलाव जनता के बीच बिना व्यापक चर्चा के किए गए थे, जब संसद निष्क्रिय थी और मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा था।

इस बयान पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने तीखा हमला बोला है। राहुल ने एक विस्तृत पोस्ट में आरोप लगाया कि आरएसएस संविधान को कमजोर करने और मनुस्मृति को देश पर थोपने की कोशिश कर रहा है। उन्होंने लिखा, “संघ और बीजेपी संविधान के मूल मूल्यों के लिए खतरा हैं। यह हमला केवल दो शब्दों तक सीमित नहीं है, यह भारत की आत्मा पर हमला है।”

विपक्षी दलों ने भी राहुल गांधी का समर्थन करते हुए होसबोले के बयान को लोकतंत्र विरोधी बताया है। समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और डीएमके सहित कई दलों ने एकजुट होकर केंद्र सरकार और संघ पर संवैधानिक मूल्यों को कमजोर करने का आरोप लगाया है।

दूसरी ओर, बीजेपी के कुछ नेताओं ने होसबोले की टिप्पणी का समर्थन करते हुए कहा है कि अब वक्त आ गया है जब संविधान से उन तत्वों को हटाया जाए जो भारत की सांस्कृतिक पहचान से मेल नहीं खाते। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने यह भी कहा कि इस पर बहस होना स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है।

संविधान संशोधन जैसे मुद्दे पर बहस स्वाभाविक रूप से गंभीर और संवेदनशील होती है। होसबोले के बयान ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या संविधान की मूल प्रस्तावना में किसी भी प्रकार के बदलाव पर दोबारा विचार किया जाना चाहिए? आने वाले दिनों में संसद के मानसून सत्र और राजनीतिक मंचों पर यह विषय चर्चा में बना रह सकता है।