आज जो बात कही जा रही है, वो राहुल गांधी को जरूर चुभेगी। क्योंकि ये सिर्फ उनके बयानों की नहीं, कांग्रेस की बदली हुई पहचान की कहानी है। कभी देश के स्वतंत्रता संग्राम की धड़कन रही कांग्रेस अब एक राजनीतिक विरासत की परछाई बन चुकी है। कांग्रेस की इमारत अब विचारधारा से नहीं, किराये से चल रही है। और इसी इमारत के भीतर हैं राहुल गांधी, जिनकी भाषा और राजनीति आज देश के बड़े हिस्से को असहज करती है।
सेना पर सवाल, विपक्ष की विश्वसनीयता पर आंच
राहुल गांधी ने हाल के वर्षों में लगातार सेना और सरकार की नीतियों पर सवाल उठाए हैं। 2016 की सर्जिकल स्ट्राइक, 2019 की एयरस्ट्राइक, 2020 का गलवान संघर्ष—हर मौके पर उन्होंने प्रमाण मांगे और सेना की कार्रवाई पर भरोसा जताने की बजाय उस पर संदेह जताया। यहां तक कि पाकिस्तान की संसद में भी उनके बयानों को हवाला बनाकर भारत की आलोचना की गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को “सरेंडर मोदी” कहने के बाद असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने ऐतिहासिक घटनाओं के उदाहरण देकर कांग्रेस को सरेंडर की असल पार्टी बताया।
विदेशी मंचों से भारत की आलोचना
राहुल सिर्फ भारत में नहीं, विदेशों में भी सरकार और संस्थाओं को कठघरे में खड़ा करते हैं। अप्रैल 2025 में अमेरिका के बोस्टन में उन्होंने चुनाव आयोग को ‘compromised’ कहा। मई में विदेश नीति को ‘collapsed’ बताया। सितंबर 2024 में सिख प्रतीकों को लेकर उनका बयान भी विवादों में रहा। इन बयानों का असर देश की छवि पर पड़ता है, खासकर तब जब वो अंतरराष्ट्रीय मंचों पर दिए जाते हैं।
कांग्रेस अब विचारधारा नहीं, विरोध की राजनीति के सहारे चल रही है। राहुल गांधी के हर बयान में राष्ट्रवाद पर नहीं, विरोध पर जोर होता है। ये वही कांग्रेस है जो भारत माता की जय बोलने में हिचकती है, और पार्टी के झंडे को राष्ट्रीय प्रतीकों से ऊपर रखती है।
लोकसभा में संख्या बढ़ी जरूर है, लेकिन विचार की रीढ़ अब भी कमजोर है। गठबंधन के सहारे सत्ता में हिस्सेदारी तो मिल रही है, पर नेतृत्व का भरोसा नहीं। ऐसे में जब राहुल को राष्ट्रीय विकल्प के रूप में पेश किया जाता है, तो सवाल उठना लाज़मी है—क्या यह विकल्प देश को दिशा देगा या और भ्रम में डालेगा?