बताया जा रहा है कि केंद्र सरकार इस बार उपराष्ट्रपति पद के लिए एक ऐसे व्यक्ति को मैदान में उतारने पर गंभीरता से विचार कर रही है, जिनका व्यक्तित्व समावेशी, शिक्षित, और सामाजिक रूप से प्रेरक हो। वे न केवल गैर-विवादास्पद हैं, बल्कि इस्लामी कट्टरवाद के मुखर विरोधी भी माने जाते हैं। उन्होंने हमेशा भारतीय संस्कृति और समाज की मूल भावना का सम्मान किया है और तीन तलाक जैसे मुद्दों पर सुधारवादी रुख अपनाया है।
केंद्र सरकार में रहते हुए उन्होंने कई अहम मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभाली थी और प्रशासनिक अनुभव के साथ-साथ अकादमिक दृष्टिकोण भी उनके कामकाज में नजर आता है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में उनका कार्यकाल काफी उल्लेखनीय रहा और उन्होंने संस्थान को अकादमिक रूप से सशक्त बनाने की दिशा में कई प्रयास किए।
बिहार और उससे पहले केरल के राज्यपाल के रूप में उनकी नियुक्ति ने भी राजनीतिक हलकों में सकारात्मक संदेश भेजा था। वे वक्फ बोर्ड में बदलाव के समर्थक हैं और मुसलमानों के सामाजिक सशक्तिकरण के पक्षधर माने जाते हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर इन्हें उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया जाता है, तो यह धर्मनिरपेक्ष राजनीति के लिए एक बड़ी चुनौती होगी। विशेषकर वे दल, जो मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति करते रहे हैं, उन्हें ऐसे व्यक्ति का समर्थन करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा, जिनकी छवि कट्टरपंथ विरोधी है।
उपराष्ट्रपति पद एक अत्यंत गरिमामयी संवैधानिक पद है, जो संसद के उच्च सदन यानी राज्यसभा के सभापति की भूमिका भी निभाता है। ऐसे में योग्य, दूरदर्शी और प्रगतिशील सोच वाले व्यक्ति की नियुक्ति इस पद के लिए न केवल प्रतीकात्मक, बल्कि व्यावहारिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण मानी जाएगी।
अब सबकी निगाहें चुनाव आयोग की ओर हैं, जो जल्द ही उपराष्ट्रपति चुनाव की तारीखों का ऐलान करेगा। यदि यह नाम आधिकारिक रूप से सामने आता है, तो यह चुनाव राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण साबित हो सकता है।