इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस शेखर कुमार यादव एक बार फिर सुर्खियों में हैं, लेकिन इस बार किसी फैसले को लेकर नहीं, बल्कि अपने एक सार्वजनिक भाषण को लेकर। 8 दिसंबर 2024 को प्रयागराज में विश्व हिंदू परिषद के मंच से दिए गए उनके विचारों ने देश में एक नई बहस को जन्म दिया है—क्या एक जज को कोर्ट के बाहर भी अपनी राय रखने की आज़ादी है, खासकर जब वो एक नागरिक और किसी धर्म के अनुयायी के तौर पर बोल रहा हो?

जस्टिस यादव ने अपने भाषण में भारत को बहुसंख्यकों की इच्छानुसार चलने की बात कही और यह भी कहा कि सिर्फ एक हिंदू ही भारत को विश्वगुरु बना सकता है। उन्होंने ट्रिपल तलाक, हलाला, और बहुविवाह जैसी परंपराओं को समाज के पिछड़ेपन से जोड़ते हुए यूनिफॉर्म सिविल कोड की वकालत की। उनके अनुसार, जब हिंदू समाज ने सती प्रथा, छुआछूत और कन्या भ्रूण हत्या जैसी बुराइयों को त्यागा, तो मुस्लिम समुदाय को भी अपनी कुरीतियों पर पुनर्विचार करना चाहिए।

राज्यसभा और सुप्रीम कोर्ट की भूमिका

13 दिसंबर को विपक्ष के 55 राज्यसभा सांसदों ने उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव भेजा। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने इन-हाउस जांच की तैयारी शुरू की, लेकिन राज्यसभा सभापति जगदीप धनखड़ ने स्पष्ट किया कि जजों के आचरण की जांच संसद के अधिकार क्षेत्र में आती है। संविधान के अनुच्छेद 124(4) और 217 के तहत राज्यसभा को यह अधिकार है कि वह जज के खिलाफ आरोपों की जांच कर सके। इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट को अपनी जांच प्रक्रिया रोकनी पड़ी।

भाषण पर विवाद और दोहरापन

इस पूरे मामले में दोहरी मानसिकता भी उजागर हुई है। जहां एक तरफ जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ करोड़ों की बरामदगी के बावजूद कोई सख्त कार्रवाई नहीं हुई, वहीं जस्टिस शेखर कुमार यादव को एक निजी भाषण के लिए तुरंत कटघरे में खड़ा कर दिया गया। उन्होंने स्पष्ट किया कि उनका उद्देश्य किसी धर्म को नीचा दिखाना नहीं, बल्कि सामाजिक सुधार की बात करना था। उन्होंने यह भी कहा कि अगर कोई जज कोर्ट के बाहर अपनी राय नहीं रख सकता, तो उसे अपने वरिष्ठों से सुरक्षा मिलनी चाहिए।

जस्टिस शेखर कुमार यादव का मामला सिर्फ एक भाषण का नहीं, बल्कि उस सीमारेखा का है जो सार्वजनिक पद पर बैठे व्यक्ति के निजी विचार और उसकी संवैधानिक भूमिका के बीच खिंचती है। सवाल यह भी है कि क्या न्यायपालिका में अब सिर्फ वही जज सुरक्षित हैं जो सिस्टम से टकराने की हिम्मत नहीं करते?